वरुण सूक्त, 1.25

वरुणसूक्त

मण्डल-                 ऋषि-आजीगर्ति, शुनः शेप

सूक्त-25                  देवता- वरुण

छंद-गायत्री                स्वर-शज्ज

कुल मंत्र-21

                                         मूलपाठः

च्चिद्धि ते विशो॑ यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यवि॑द्यवि ।।1।।

हे वरुणदेव! संसार के विद्वान् तुम्हारे व्रत का अनुष्ठान करने में जिस प्रकार भूलें करते हैं, उसी प्रकार हमसे भी प्रतिदिन प्रमाद होता रहता है ।

मा नो॑ धाय॑ हृत्नवे॑ जिहीळानस्य॑ रीरधः मा हृ॑घ्णानस्य॑ न्यवे॑ ।।2।।

हे वरुण! जो तुम्हारा अनादर करता है, तुम उसके लिए घातक बन जाते हो. तुम हमारा वध मत करना. तुम हमारे ऊपर क्रोध मत करना.(2)

 

वि मृ॑ळीकाय॑ ते मनो॑ थीरश्वं न सन्दि॑तम्, गीर्भिर्व॑रुण सीमहि। (३)

हे वरुण देव! जिस प्रकार रथ का मालिक थके हुए घोड़े को स्वस्थ करता है, उसी प्रकार हम भी स्तुतियों द्वारा तुम्हारा मन प्रसन्न करते हैं (३)

 

रा हि मे विम॑न्यवः पत॑न्ति॒ वस्य॑इष्टये. वयो न व॑तीरुप॑ (४)

जिस प्रकार चिड़ियां अपने घोंसलों की ओर तेजी से उड़ती हैं, उसी प्रकार हमारी क्रोधरहित विचारधाराएं जीवन प्राप्त करने के लिए दौड़ रही हैं. (४)

 

दा क्ष॑त्रश्रियंमा वरु॑णं करामहे. मृळीकायो॑रुचक्ष॑सम्(५)

हम शक्तिशाली नेताओं तथा अगणित लोगों पर दृष्टि रखने वाले वरुण को इस यज्ञ में कब बुलाएंगे (५)

 

तदित्स॑मानमा॑शाते॒ वेन॑न्ता न प्र यु॑च्छतः, धृतव्र॑ताय दाशुषे॑. (६)

मित्र और वरुण हव्य देने वाले यजमान पर प्रसन्न होकर हमारे द्वारा दिया हुआ साधारण हवि स्वीकार कर लेते हैं. वे कभी भी उसका त्याग नहीं करते।(६)

 

वेदा यो वीनां प॒दम॒न्तरि॑क्षे पत॑ताम्. वेद॑ नावः स॑मुद्रियः॑ (७)

वरुण आकाश में उड़ने वाले पक्षियों और सागर में चलने वाली नौकाओं का मार्ग जानते हैं. (७)

 

वेद॑ मासो धृतव्र॑तो द्वाद॑श प्र॒जाव॑तः, वेदा य उ॑जाय॑ते (८)

वरुण उक्त महिमा को धारण करके समय-समय पर उत्पन्न होने वाले बारह महीनों को जानते हैं और तेरहवें मास को भी जानते हैं. (८)

 

वे वात॑स्य वर्तनिमुरोर्ऋष्वस्य॑ बृहतः. वेदा ये ध्यास॑ते (९)

वरुण विस्तार से संपन्न, दर्शनीय और अधिक गुण वाली वायु का मार्ग जानते हैं. वे आकाश में निवास करने वाले देवों से भी परिचित हैं.(९)

 

नि षसाद धृतव्र॑तो वरु॑णः स्त्या′3स्वा. साम्रा॑ज्याय सुक्रतुः॑.. (१०)

व्रत धारण करने वाले एवं उत्तम कर्म करने वाले वरुण दैवी प्रजाओं पर साम्राज्य करने के लिए आकर बैठे थे.

 

तो विश्वान्यद्भु॑ता चिकित्वाँ भि प॑श्यति, कृतानि या कर्त्वा॑.. (११)

बुद्धिमान् मनुष्य वरुण की अनुकंपा से वर्तमान काल और भविष्यत् काल की सारी आश्चर्यजनक घटनाओं को देख लेते हैं.(११)

 

स नो॑ विश्वाहा॑ सुक्रतु॑रादित्यः सुपथा॑ करत्. प्र आयूं॑षि तारिषत् (१२)

शोभन बुद्धि वाले वे ही अदितिपुत्र वरुण हमें सदा उत्तम मार्ग पर चलने वाला बनावें एवं हमारी आयु को बढ़ावें. (१२)

 

बिभ्र॑द्द्रापिं हि॑ण्ययं वरु॑णो वस्त निर्णिज॑म्, परि स्पशो निषे॑दिरे (१३)

वरुण सोने का कवच धारण करके अपने बलिष्ठ शरीर को ढकते हैं. उसके चारों ओर सुनहरी किरणें फैलती हैं. (१३)

 

न यं दिप्स॑न्ति दिप्सवो न द्रुह्वा॑णो जना॑नाम्, न दे॒वम॒भिमा॑तयः (१४)

हिंसा करने वाले लोग भयभीत होकर वरुण की शत्रुता छोड़ देते हैं. मनुष्यों को पीड़ा पहुंचाने वाले लोग उन्हें पीड़ा नहीं पहुंचाते. पाप करने वाले लोग उनके प्रति पाप का आचरण त्याग देते हैं. (१४)

 

त यो मानु॑षेष्वा यश॑श्चक्रे असाम्या. स्माक॑मुरेष्वा (१५)

वरुण ने मनुष्यों की उदरपूर्ति के लिए पर्याप्त अन्न पैदा किया है. वे विशेष रूप से हमारी उदरपूर्ति करते हैं. (१५)

 

परा॑ मे यन्ति धीयो गावो न गव्यू॑तीरनु॑. च्छन्ती॑रुरुचक्षऺसम् (१६)

बहुत से लोगों ने वरुण के दर्शन किए हैं. जिस प्रकार गाएं गोशाला की ओर जाती हैं, उसी प्रकार कभी पीछे न लौटने वाली मेरी विचारधारा वरुण की ओर अग्रसर होती है (१६)

 

सं नु वो॑चावहै  पुर्यतो॑ मे मध्वाभृतम्, होते॑ क्षद॑से प्रियम् (१७)

हे वरुण! मधुर रस वाला मेरा हव्य तैयार है. तुम होता के समान उस हव्य का भक्षण करो. इसके पश्चात् हम लोग आपस में बातें करेंगे. (१७)

 

र्शं नु विश्वदऺर्शनंर्शंधि क्षमिऺ. ता जु॑षत मे गिरः॑ (१८)

सब लोग जिन वरुण के दर्शन करते हैं, उन्हें मैंने देखा है. मैंने कई बार धरती पर चलता

हुआ उनका रथ देखा है. वरुण ने मेरी प्रार्थना स्वीकार की है. (१८)

 

मं मे॑ वरुण श्रुधी हव॑म॒द्या चऺ मृळय. त्वाम॑व॒स्युरा चऺके (१९)

हे वरुण देव! आज मेरी पुकार सुनो. आज मुझे सुख प्रदान करो, मैं अपनी रक्षा की इच्छा से तुम्हें बुला रहा हूं. (१९)

 

त्वं विश्वऺस्य मेधिर दिश्च ग्मश्चऺ राजसि. स याम॑नि प्रति॑ श्रुधि (२०)

हे बुद्धिमान् वरुण! आकाश, धरती एवं समस्त संसार में तुम्हारा प्रकाश फैला हुआ है. तुम हमारी प्रार्थना सुनकर हमारी रक्षा करने का वचन दो (२०)

 

उदु॑त्तमं मु॑मुग्धि नो वि पाशं॑ मध्यमं॑ चृ॑त. अवा॑मानि॑ जीवसे॑ (२१)

हमारे सिर वाले फंदे को ऊपर से और कमर के फंदों को बीच से खोल दो, जिससे हम जीवन धारण कर सकें. (२१)

 

note-‘समुद्रियः’ पद में मु के नीचे अंडर लाइन का चिह्न आना है जो कि किसी तकनीकि समस्या के कारण नही आ पा रहा है। अतः ‘मु’ के नीचे चिह्न अवश्य करें।

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